छत्तीसगढ़ की मिट्टी में त्योहारों की खुशबू कुछ अलग ही होती है। यहाँ हर पर्व केवल आस्था का नहीं, बल्कि जीवनशैली, संस्कृति और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक होता है। दीपावली का त्यौहार जहाँ समृद्धि और प्रकाश का प्रतीक माना जाता है, वहीं इसके दूसरे दिन मनाया जाने वाला गोवर्धन पूजा या गोवर्धन तिहार छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन, विशेषकर कृषक संस्कृति की आत्मा को दर्शाता है।
दीपावली की लक्ष्मी पूजा वाली रात को विशेष रूप से आदिवासी समाज द्वारा “ईशर गौरा गौरी” की स्थापना की जाती है। रात में गौरा और गौरी का विवाह धूमधाम से संपन्न किया जाता है और दूसरे दिन प्रातः गौरा-गौरी का विसर्जन किया जाता है।

परंपरागत गोवर्धन पूजा की परंपरा
दीपावली की अगली सुबह जब गाँव की पगडंडियाँ ओस से भीगी होती हैं, तब किसान अपने गौवंश—गाय और बैलों—को नहलाकर गांव के गौठान में छोड़ देते हैं
करीब 12 बजे के आसपास चरवाहे गौवंशों को लेकर प्रत्येक किसान के घर पहुँचते हैं। इस दिन किसान अपने गौशाला के मुख्य द्वार पर गोबर से विशेष आकृति बनाते हैं, जिसे “गोबरधन” कहा जाता है। इस आकृति को धान की बालियों, फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है।
जब गाय-बैल घर पहुँचते हैं, किसान सबसे पहले उन पर पानी छिड़ककर उनका स्वागत करते हैं। इसके बाद वे “गोबरधन” आकृति को खूंदकर (अर्थात् पैरों से स्पर्श कर तोड़ते हुए) गौशाला में प्रवेश करते हैं। यह प्रतीक है कि गोवंश के चरण पड़ने से घर में समृद्धि और सौभाग्य का आगमन होता है।
इसके बाद परिवार के मुखिया और अन्य सदस्य थाली में दीपक, फूल और अक्षत रखकर गौ आरती करते हैं। फिर गौवंशों को घर में बने पकवान—चावल, दाल, पूड़ी, खीर और कोचई (अरबी) की सब्जी खिलाई जाती है। इस सब्जी को बनाना इस दिन अनिवार्य माना जाता है।
किसान परिवार गौवंशों द्वारा छोड़े गए जूठन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। यह परंपरा केवल श्रद्धा का नहीं, बल्कि मानव और पशु के बीच आत्मिक संबंध का प्रतीक है। शाम को फिर से सजे हुए गौवंशों को गौठान ले जाया जाता है, जहाँ समूचे गाँव के पशु एक साथ विशाल “गोबरधन” को खूंदते हुए अपने घर लौटते हैं। यह दृश्य पूरे गाँव में उत्सव का वातावरण बना देता है।
गोवर्धन पूजा का सांस्कृतिक महत्व
यह पर्व छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन की आत्मा को जीवंत करता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि किसान और उसके सहचर—गाय-बैल—के बीच के गहरे भावनात्मक रिश्ते का उत्सव है।
कृषक के लिए गौवंश केवल पशु नहीं, परिश्रम के साथी और जीविका के आधार हैं। गोवर्धन पूजा इस रिश्ते को सम्मान देने का दिन है।
वर्तमान स्थिति की विडंबना
लेकिन आज तस्वीर बदल चुकी है।
आधुनिकता और यंत्रीकरण की दौड़ में किसान के घरों से गौवंश लुप्त होते जा रहे हैं। ट्रैक्टरों ने बैलों की जगह ले ली है, और अनेक किसानों ने अपने गोवंशों को बेसहारा छोड़ दिया है। ये वही गौवंश अब सड़कों पर आवारा घूमते हुए दिखाई देते हैं—कभी भूख से तड़पते हुए, तो कभी दुर्घटनाओं का शिकार बनते हुए।
सरकार ने गौठान योजनाओं और गोवंश संरक्षण पर करोड़ों रुपए खर्च किए हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि गोवंश सड़क हादसों में मारे जा रहे हैं, और गोशालाओं की स्थिति दयनीय है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज छत्तीसगढ़ के लगभग 95% किसानों के घरों में अब गौवंश ही नहीं बचे हैं।
गोवर्धन पूजा के दिन किसान पूजा तो करते हैं, परंतु गौवंश की जूठन प्रसाद के रूप में खाने की परंपरा अब केवल स्मृति बनकर रह गई है।
परंपरा की आत्मा को बचाने का समय
अब इस त्यौहार का आधुनिकरण हो गया है — धीरे-धीरे यह उत्सव शॉपिंग, मिठाई और पटाखों तक ही सीमित होता जा रहा है। गाँवों की परंपरागत आस्था, गोवंश की पूजा और सामूहिकता का भाव अब शहरों की भीड़ और दिखावे में कहीं खोता जा रहा है।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति ने हमेशा “जीवो और जीने दो” की भावना को अपनाया है। दीपावली और गोवर्धन पूजा जैसे त्योहार हमें यह याद दिलाते हैं कि प्रकृति और पशु हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं।
यदि हम इन पर्वों को केवल औपचारिकता के रूप में मनाते रहे और अपने गौवंशों को बेसहारा छोड़ते रहे, तो यह पर्व केवल इतिहास के पन्नों में रह जाएगा।
समय आ गया है कि किसान, समाज और सरकार मिलकर गौवंश संरक्षण को व्यवहार में उतारें, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उसी श्रद्धा, आनंद और आत्मीयता से गोवर्धन तिहार मना सकें, जैसा कभी हमारे पूर्वज मनाते थे