रायपुर, 15 अक्टूबर।
राजधानी रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ जनसंपर्क कार्यालय में हाल ही में अधिकारियों और पत्रकारों के बीच हुई कथित हाथापाई की घटना अब तूल पकड़ चुकी है। इस पूरे मामले को लेकर प्रदेशवाद.com के संपादक और छत्तीसगढ़ीया पत्रकार महासंघ के प्रदेश अध्यक्ष गजेंद्र रथ ‘गर्व’ ने अपने फेसबुक वॉल पर एक लंबी विश्लेषणात्मक पोस्ट साझा की है, जिसने प्रदेश के मीडिया जगत में नई बहस छेड़ दी है।

गजेंद्र रथ ने अपने पोस्ट में कहा है कि यह विवाद केवल एक कार्यालयी झगड़ा नहीं, बल्कि लंबे समय से चल रहे “मीडिया और जनसंपर्क विभाग में परप्रांतीय वर्चस्व” का नतीजा है। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकारी विज्ञापनों की बंदरबांट में छत्तीसगढ़ी भाषी संस्थानों की उपेक्षा की जा रही है, जबकि “सेटिंगबाज” संस्थाओं को करोड़ों रुपये के विज्ञापन बिना पारदर्शिता के दिए जा रहे हैं।
पत्रकारों में दो गुट!
इस विवाद के बाद प्रदेश के पत्रकार समुदाय में स्पष्ट रूप से दो धड़े बन गए हैं —
पहला धड़ा, जो जनसंपर्क अधिकारियों पर सवाल उठाने वाले पत्रकारों को “ब्लैकमेलर” और “फर्जी वसुलीबाज” कह रहा है।
दूसरा धड़ा, जो इन आरोपों को “बड़े संस्थानों के चाटुकार संपादकों” की प्रतिक्रिया बता रहा है और सरकारी विज्ञापन वितरण में निष्पक्षता की मांग कर रहा है।
स्थानीयता बनाम परप्रांतीय बहस
गजेंद्र रथ ने अपने पोस्ट में कहा कि “छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता और जनसंपर्क दोनों पर लंबे समय से वर्ग विशेष और परप्रांतीय पत्रकारों का कब्जा है। ये लोग यहां केवल पैसा कमाने आए हैं, न कि प्रदेश के मुद्दों को उठाने।”
उन्होंने सवाल उठाया कि “राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों को राज्य सरकार की योजनाओं का विज्ञापन क्यों? जबकि स्थानीय भाषा और जमीनी स्तर के पत्रकार लगातार उपेक्षित हैं।”
छत्तीसगढ़ीया पत्रकार महासंघ का ऐलान
उन्होंने चेतावनी दी कि अगर विज्ञापन नीति में सुधार नहीं किया गया, तो छत्तीसगढ़ी पत्रकार महासंघ जल्द ही संवैधानिक आंदोलन शुरू करेगा।
उनका कहना है कि सरकारी विज्ञापन में पहला हक छत्तीसगढ़ी भाषी अखबारों, चैनलों और डिजिटल पोर्टलों का होना चाहिए।
“प्रादेशिक अस्मिता की लड़ाई”
गजेंद्र रथ ने अपने फेसबुक पोस्ट में स्पष्ट कहा —
> “अब समय आ गया है कि छत्तीसगढ़ी भाषी पत्रकार एकजुट हों। प्रेस क्लब रायपुर सहित प्रदेश के मीडिया संस्थानों में स्थानीयता की लड़ाई लड़नी होगी। उत्तर भारत और मध्यप्रदेश के वर्ग विशेष के पत्रकार यहां के मुद्दों का मखौल उड़ा रहे हैं, जबकि आम छत्तीसगढ़िया पत्रकार संघर्ष कर रहा है।”
जनसंपर्क विभाग पर भी सवाल
पोस्ट में यह भी आरोप लगाया गया है कि विभागीय अधिकारियों ने विज्ञापन वितरण की पारदर्शी प्रक्रिया को दरकिनार कर रखा है, जिससे “सिफारिशी संस्थान” लगातार लाभ उठा रहे हैं।
जनसंपर्क विभाग की यह घटना अब केवल एक मारपीट का मामला नहीं रही, बल्कि छत्तीसगढ़ी बनाम परप्रांतीय पत्रकारों के बीच अस्मिता की जंग का रूप ले चुकी है। गजेंद्र रथ का यह विश्लेषण छत्तीसगढ़ के मीडिया जगत में एक गंभीर आत्ममंथन की मांग करता है — आखिर छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में छत्तीसगढ़ियों की हिस्सेदारी कितनी?